Saturday 13 April 2013

Jai Taran Taran

धन्य-धन्य वह सप्तमी जब गुरुवर ने जन्म लिया
आडंबर के तूफानोँ से सत्य धर्म को बचा लिया
अपनी ओजमयी वाणी से जन-जन को प्रेरित किया
और अपने अनुयायियोँ को सच्चा तारणपंथ दिया..
"तू स्वंय भगवान है" का संदेश सबको सुना दिया
और अपने ज्ञानबल से चौदह ग्रंथोँ की निधि को प्रगट किया..
महान पुण्योदय से हमने ऐसी शुद्द आमनाओँ को प्राप्त किया...
ऐसे अध्यात्म ज्ञानी,योगी, स्वानुभूति से संपन्न,शुद्द चैतन्यप्रकाश से आलोकित, छटवे-सातवे गुणस्थान मेँ आत्मा के अतीन्द्रिय रस का पान करने वाले व स्वंय तरे और दूसरोँ को भवसागर से तरने हेतु आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त करने वाले वीरश्री नंदन वीतरागी संत श्री तारण तरण स्वामीजी महाराज के चरणोँ मेँ कोटि-कोटि वंदन व सर्मपण..

वन्दे श्री गुरु तारणम,,

Taran Swami

तारण पंथ का प्रादुर्भाव,
श्री तारण स्वामी के माता-पिता दिगम्बर जैन आम्नाय के अनुयायी थे, मामा श्री लक्ष्मण सिंघई भी दिगम्बर जैन आम्नाय के प्रमुख व्यक्ति थे। श्री तारण स्वामी भी दिगम्बर जैन आम्नाय में पैदा हुए; परन्तु जाग्रत चेतना का धनी ज्ञानी किसी साम्प्रदायिक बन्धन में बन्धकर नहीं रहता, जिसने सत्य स्वरूप आत्मा का साक्षात्कार किया हो और पूर्व में सत्य धर्म की देशना सुनी समझी हो तथा सातिशय पुण्य का उदय लेकर आया हो, वह किसी का अंधानुकरण नहीं करेगा। यही कारण है कि पुष्पावती में जन्में तारण को पाँच वर्ष की बाल वय में ही माता-पिता सेमरखेड़ी लेकर आये। विलक्षण प्रतिभा के धनी, जिन्हें ग्यारह वर्ष की बाल्यावस्था में सम्यक्दर्शन हो गया, वैराग्य भाव जाग्रत हो गया। चन्देरी में पढ़ने भेजा, वहाँ धर्म के नाम पर होने वाले पापाचार, क्रियाकाण्ड जड़वाद की बहुलता को देखकर अन्तर में विद्रोह पैदा हो गया। 
यह महान जैन धर्म जो जग के जीवों को कल्याणकारी स्वतंत्रता का पुजारी शुद्ध अध्यात्मवाद सत्य धर्म का उद्घोषक, आज यह धर्म के नाम पर क्या हो रहा है, पंडित, पुजारी, भट्टारक और समाज के प्रमुख, आज जैन धर्म का कैसा पतन कर रहे हैं ! तारण स्वामी के जीव ने दो हजार वर्ष पूर्व भगवान महावीर के समवशरण में प्रत्यक्ष सत्य धर्म की देशना सुनी थी, जैन दर्शन के मर्म को समझा था, वह संस्कार यहाँ प्रकट हो गये।
इक्कीस वर्ष की आयु में बाल ब्रम्हचार्य व्रत का संकल्प लेकर सत्य धर्म जो अपना आत्म स्वभाव है उसका शंखनाद करने लगे ‘‘अप्पा सो परमप्पा’’ प्रत्येक जीव आत्मा स्वभाव से शुद्धात्मा है। अन्तर्जागरण, भेदज्ञान, सम्यक्दर्शन का शंखनाद होने लगा। भोले भव्य जीव ऐसी आत्मा की चर्चा सुनकर प्रभावित होने लगे, सत्य धर्म अपने आत्म स्वरूप को समझने लगे। अध्यात्मवाद में बाह्य क्रियाकाण्ड, पूजा-पाठ की कोई प्रधानता होती ही नहीं है, यह तो सब संसार का ही कारण है। धर्म साधना, आत्म हित में जाति-पांति सम्प्रदाय का भी कोई बन्धन नहीं होता। 
एक दीपक जला तो हजारों दीपक जलने लगे, चारों तरफ सत्य धर्म, जैन धर्म की जय-जयकार होने लगी।
इससे बौखलाकर पांडे पंडित भट्टारकों ने नाना प्रकार से प्रलोभन दिये परन्तु जिसके जीवन में सत्य धर्म का प्रादुर्भाव हुआ हो वह असत्, अधर्म, अन्याय के सामने झुकता नहीं है, फलस्वरूप जहर दिया गया, बेतवा में डुबाया गया, पर जिसके द्वारा लाखों जीवों का कल्याण होने वाला हो उसे कौन मार सकता है ? नाना प्रकार के उपद्रव अत्याचार सहने के बाद उनके प्रमुख अनुयायियों ने यह तारण पंथ का विधान बनाया, जिसका मूल आचार-सप्त व्यसन का त्याग, अठारह क्रियाओं का पालन करने वाला तारण पंथी कहलायेगा तथा तारण पंथ की साधना पद्धति भेदज्ञान तत्व निर्णय, वस्तु स्वरूप, द्रव्यदृष्टि और ममल स्वभाव की साधना है। जिसके अन्तर्गत श्री गुरू महाराज ने पाँच मतों में चैदह ग्रन्थों की रचना की जो शुद्ध अध्यात्म से परिपूर्ण जिनेन्द्र कथित जैन दर्शन का मर्म बताने वाले हैं।



           श्री जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज का जीवन परिचय
श्री जिन तारण स्वामी का जन्म मिति अगहन सुदी सप्तमी विक्रम संवत् 1505 में कटनी के निकट पुष्पावती नगरी जिला जबलपुर .प्र. में हुआ था, जो आज बिलहरी के नाम से जानी जाती है।
आपके पिता जी का नाम श्री गढ़ाशाह जी और माता जी का नाम श्री वीरश्री देवी था। पूर्व के उत्कृष्ट-शुभ संस्कार आपके साथ में आये थे अतः बचपन से ही आश्चर्य में डाल देने वाली घटनायें घटने लगीं। उसी क्रम में आपके माता-पिता 5 वर्ष की बाल्यावस्था में ही आपको लेकर सेमरखेड़ी गये और तारण स्वामी माता-पिता सहित मामा श्री लक्ष्मण सिंघई के यहाँ रहने लगे।
‘‘बाल्यकालादति प्राज्ञं’’ बाल्यकाल से ही अत्यन्त प्रज्ञावान थे।मिथ्या विली वर्ष ग्यारहश्री छद्मस्थ वाणी जी ग्रन्थ के इस सूत्रानुसार श्री तारण स्वामी को ग्यारह वर्ष की अवस्था में सम्यग्दर्शन हो गया था। थोड़े ही समय में आपने गम्भीर जिनशासन के रहस्य को जान लिया तथा तद्नुरूप ज्ञान-वैराग्य जीवन बनाते हुए आत्म-कल्याण के लक्ष्य से आत्म साधना में रत हो गए। संसार, शरीर, भोगों से बढ़ती हुई विरागता, मुक्ति पाने की प्रबल भावना ने आत्म बल इतना बढ़ाया कि माँ की ममता भी संसार के बन्धन में नहीं बाँध सकी और 21 वर्ष की किशोरावस्था में आपने अखण्ड बाल ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करके अपने शुद्धात्म स्वरूप की साधना में तल्लीन हो गए। सहज और प्रबल वैराग्य सहित मात्र ज्ञान ध्यान ही आपका कार्य था।
शुद्ध स्वभाव की साधना की भावनाओं से ओत-प्रोत श्री जिन तारण स्वामी सेमरखेड़ी के बियावान जंगल में जहाँ सिंह आदि हिंसक पशु विचरण करते थे, ऐसे घोर निर्जन वन की गुफाओं में आपनी साधना में लीन रहते थे।

वीतराग स्वभाव की साधना से दिनोंदिन वीतरागता बढ़ती गई और 30 वर्ष की उम्र में सप्तम ब्रह्मचर्य-प्रतिमा की दीक्षा ग्रहण की। श्री तारण स्वामी का जीवन निश्चय-व्यवहार से समन्वित था उनकी कथन-करनी एक थी। इस उम्र तक उन्होंने आगम और अध्यात्म ज्ञान के उपार्जन के साथ-साथ संयम की साधना में वैराग्यपूर्ण दृढ़ता जाग्रत कर ली थी। इस बीच उन्होंने यह भी अच्छी तरह जान लिया था कि मूलसंघ कुन्द-कुन्द आम्नाय के भट्टारक भी किस गलत मार्ग से समाज पर अपना वर्चस्व स्थापित करते हैं। उन्हें उसमें मार्ग विरुद्ध क्रियाकाण्ड की भी प्रतीति हुई, अतः उन्होंने ऐसे मार्ग पर चलने का निर्णय लिया जिस पर चलकर भट्टारकों द्वारा पूजा आदि सम्बन्धी क्रियाकाण्ड की अयथार्थता को समाज हृदयंगम कर सके। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उन्होंने सत्य धर्म की यथार्थ साधना से तथा उनकी वीतरागता की देशना से जीवों में आत्म कल्याण की भावना जागी, सच्चे और झूठे का निर्णय करने का विवेक प्रगट हुआ। परन्तु उस समय क्रियाकाण्डों को ही सर्वस्व मानने वाले, वास्तविक आत्म-धर्म से अपरिचित भट्टारकों, पांडे, पंडितों को यह सत्यता का प्रकाश सहन नहीं हुआ और योजना बद्ध ढंग से तारण स्वामी को जहर दिया, वेतवा नदी में डुबाया परन्तु वे ममल स्वभाव चैतन्य के रंग में ऐसे रंग गये थे कि इन घटनाओं का उनके ऊपर असर नहीं हुआ बल्कि स्वभाव साधना में मुक्ति मार्ग पर आगे बढ़ने के लिये अधिक प्रबलता से आत्म शक्ति जाग गई तथा साधना में दृढ़ता पूर्वक आगे बढ़ने लगे। आत्म चिन्तन, मनन ध्यान आदि में रत रहते हुए अपने मुमुक्षु आत्माओं को धर्म का यथार्थ स्वरूप बताया जिससे अनेक आत्माओं ने कल्याण का मार्ग ग्रहण किया।
अनादि कालीन संसार के जन्म-मरण आदि दुःखों से मुक्त होने आनन्द परमानन्द मयी परम पद प्राप्त करने की उत्कृष्ट भावना से 60 वर्ष की आयु में मिति अगहन सुदी सप्तमी वि.सं. 1565 में आपने निग्र्रन्थ दिगम्बरी जिन दीक्षा (मुनि-दीक्षा) धारण की। पश्चात्अनेक मण्डलों के आचार्य होने से मण्डलाचार्य कहलाये
आचार्य तारण स्वामी सोलहवीं शताब्दी में हुए महान अध्यात्म वादी वीतरागी संत थे। वे अपने ममल स्वभाव की साधना में ऐसे लीन हुए कि संसार शरीरादि से मोह टूट गया। चार-चार दिन तक आत्म समाधि में लीन रहने लगे। उन्होंने अपने ज्ञान की किरणों से समस्त विश्व को आलोकित किया। उनके ज्ञान के प्रकाश में लाखों जीवों ने आत्म कल्यण का मार्ग अपनाया।
श्री जिन तारण स्वामी मण्डलाचार्य पद पर 6 वर्ष 5 माह 15 दिन रहे। इस कारण उनकी पूर्ण आयु 66 वर्ष 5 माह 15 दिन की थी। अन्त में श्री निसई जी क्षेत्र (मल्हारगढ़) के वन में विक्रम संवत् 1572 मिति ज्येष्ठ वदी 6 को समाधि धारण कर सर्वार्थ सिद्धि को प्राप्त हुए।
जैन जगत धन्य है कि कुन्द-कुन्द आदि वीतरागी आचार्यों की पावन परम्परा में जन-जन को आत्म कल्याण का महान सन्देश देने वाले, समभाव, स्नेह, करुणा और संयम का प्रतिमान उपस्थित करने वाले संत गुरूवर श्री जिन तारण स्वामी अपने आप में एक दिव्य ज्ञान ज्योति के धनी आध्यात्मिक क्रान्तिकारी संत थे।
उनका जीवन ग्रन्थों की मात्र गाथा नहीं है, आज इतिहासकारों की दृष्टि में उन्हें युग प्रवर्तक के रूप में स्वीकार किया जाता है। उन्होंने सम्यक् ज्ञान सहित संयममय अपनी जीवन चर्या से यह निरूपित कर दिया कि मात्र ज्ञान ही नहीं, तप और चारित्र भी आवश्यक है। विशेष यह है कि आध्यात्मिक ज्ञान के साथ तद्रूप चर्यामय जीवन बनाकर धर्म का सत्य स्वरूप जन मानस को बताया। जो मानव अपना आत्म कल्याण करना चाहते हैं, जन्म-मरण के दुःखों से छूटना चाहते हैं वे जाति पांति के बन्धन तोड़कर सत्य को अर्थात् अपने आत्म स्वरूप को समझने का प्रयास करें; क्योंकि आध्यात्मिक दृष्टि होने पर ही आत्म कल्याण हो सकता है।
अनादि से यह जीव अपने आत्मस्वरूप की विस्मृति और शरीरादि में, मैं और मेरेपन की मान्यताओं से चारगति चैरासी लाख योनियों में जन्म-मरण कर रहा है। वर्तमान में यह मानव जीवन इस संसार चक्र से छूटने का शुभ योग प्राप्त हुआ है।
इस प्रकार से श्री जिन तारण स्वामी ने खुले मैदान में मानव मात्र को अपने आत्म स्वरूप का दर्शन कराया, आत्म कल्याण करने की दिशा प्रदान की।
भगवान महावीर से लेकर कुन्दकुन्दाचार्य, योगीन्दुदेव, अमृतचन्द्राचर्य आदि ज्ञानी महापुरुषों की विलुप्त होती जा रही सत्य धर्म निरूपण और आचरण की परम्परा को पुनः जीवित करने का श्रेय श्री तारण तारण मण्डलाचार्य जी महाराज को है। आज धर्म का जो निष्कलंक सत्य स्वरूप दिखाई दे रहा है यह इन्हीं जाग्रत चेतना के प्रयत्न का परिणाम है। आध्यात्मिक क्रांति का यह कार्य उन्होंने मुगल साम्राज्य के धार्मिक आक्रमणों से अथवा अन्य किन्हीं से भयभीत होकर नहीं किया, बल्कि सत्य को अपने विवेक बुद्धि से परखा अनुभव की कसौटी पर कस कर देखा और स्व-पर कल्याणार्थ अध्यात्म ध्वज फहरा दिया। उनने किसी का विरोध नहीं किया, मात्र सत्य धर्म के यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन किया है। अज्ञानियों को विरोध लगता है; परन्तु ज्ञानी किसी का विरोध नहीं करते क्योंकि विरोध द्वेष को जन्म देता है और ज्ञानी राग-द्वेष आदि विकारों से दूर रहते हैं।
आचार्य श्री जिन तारण तारण मण्डलाचार्य जी महाराज के चैदह ग्रन्थों में आत्म कल्याणकारी मंगलमयी विशुद्ध अध्यात्म की धारा प्रवाहित है। उनके द्वारा दिये गये अध्यात्म सन्देश को समझने के लिये उनके 14 ग्रन्थों की कुछ गाथाएँ प्रस्तुत हैं।
श्री मालारोहण जी ग्रन्थ में जिन शुद्धात्मा के स्वरूप सहित स्वभाव साधना करने की प्रत्येक जीव को प्रेरणा देते हुए कहा है -
सुद्धं प्रकासं सुद्धात्म तत्वं, समस्त संकल्प विकल्प मुक्तं।
रत्नत्रयं लंकृत विस्वरूपं, तत्वार्थ सार्धं बहुभक्ति जुक्तं।।
।। श्री मालारोहण जी गाथा - 15 ।।
शुद्धात्म तत्व, शुद्ध प्रकाश मयी ज्ञान स्वरूपी, समस्त संकल्प विकल्पों से रहित रत्नत्रय से सुशोभित अपना ही सत्स्वरूप है, इसी प्रयोजनीय शुद्धात्म स्वरूप की बहुत भक्ति सहित साधना करो।
निज स्वभाव साधना कर, आनन्द परमानन्द मय रहना, मुक्ति की प्राप्ति करना इसी में मनुष्य भव की सार्थकता है। विशेष बात यह है कि आत्मा की साधना और मुक्ति की प्राप्ति कोई भी जीव कर सकता है। इसमें जाति-पांति का या छोटे-बड़े का कोई भेद-भाव नहीं है, परन्तु निज स्वरूप की अनुभूति सहित, सम्यक्त्व से शुद्ध होना आवश्यक है इसी बात को सदगुरू ने बताया है -
जे सिद्ध नंतं मुक्ति प्रवेसं, सुद्धं सरूपं गुन माल ग्रहितं।
जे केवि भव्यात्म संमिक्त सुद्धं, ते जांति मोष्यं कथितं जिनेन्द्रं।।
।। श्री मालारोहण जी गाथा - 32 ।।
जो अनन्त सिद्ध भगवन्त मुक्ति को प्राप्त हुए हैं उन सबने शुद्ध स्वरूपी ज्ञान गुण माला निज स्वरूपानुभूति को ग्रहण किया। जो कोई भी भव्य जीव सम्यक्त्व से शुद्ध होंगे, वे भी मोक्ष को प्राप्त करेंगे यह भी जिनेन्द्र भगवान के वचन हैं। श्री उपदेश शुद्धसार जी ग्रन्थ में इसे और स्पष्ट किया है -
जायि कुलं नहु पिच्छदि, सुद्धं सम्मत्त दसनं पिच्छइ।
न्यान सहाव अन्मोयं, अन्यानं सल्य मिच्छ मुंचेई।।
।। उपदेश शुद्धसार जी ग्रन्थ, गाथा - 153 ।।
चैतन्य स्वभाव का अनुभवी ज्ञानी जाति और कुल को नहीं देखता बल्कि शुद्ध सम्यक्त्व सहित आत्मानुभव रूप सम्यक् दर्शन को पहिचानता है। शुद्ध ज्ञान स्वभाव की अनुमोदना में रत रहता हुआ अज्ञान, सल्य और मिथ्यात्व को छोड़ देता है। सम्यक् दर्शन प्रत्येक जीव का स्वरूप है इसलिए कोई भी जीव स्वभावोन्मुख होकर निज शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव कर, सम्यक् दर्शन प्रगट कर सकता है, वस्तुतः धर्म भी यही है।
धम्मं चेयनत्वं, चेतन लष्यनेहि संजुत्तं।
अचेत असत्य विमुक्कं, धम्मं संसार मुक्ति सिव पंथं।।
।। श्री न्यान समुच्चय सार जी गाथा - 710 ।।
आत्मा का चेतनत्व गुण है, शरीरादि समस्त अचेतन पदार्थो , रागादि विभावों से छूटकर, अपने चैतन्य लक्षणमयी स्वभाव से संयुक्त होना ही धर्म है। धर्म संसार से पार लगाने वाला, मुक्ति और सिद्धि-सुख को प्राप्त करने का मार्ग है।
चेतना लक्षणो धर्मो, चेतयन्ति सदा बुधैः।
ध्यानस्य जलं सुद्धं, न्यानं अस्नान पण्डिता।।
।। श्री पंडित पूजा जी गाथा - 9 ।।
निजात्मा का चैतन्य लक्षणमयी स्वभाव धर्म है। ज्ञानीजन हमेशा इसका अनुभव करते हैं तथा ध्यान में स्थित होकर शुद्ध ज्ञान के जल से स्नान करते हैं।
धर्मी की दृष्टि स्वभाव पर होती है। इसलिये उसे कोई छोटा-बड़ा दिखाई नहीं दिता क्योंकि स्वभाव कभी छोटा-बड़ा नहीं होता, स्वभाव से प्रत्येक जीव सिद्ध से समान है, ज्ञानी ऐसा देखते हैं। जिनकी दृष्टि इसके विपरीत है उनके सम्बन्ध में सद्गुरू ने कहा है -
नीच ऊंच दृश्यते, तद् नीच निगोद खांड़ो दृश्यते।।
।। श्री खातिका विशेष कारिका - 30 ।।
जो मानव दूसरे जीवों को नीच-ऊंच पने की दृष्टि से देखता है, वह उस भावना से नीच योनि, निगोद रूप गड्ढे में जा गिरता है। किसी को ऊंच-नीच की भावना से देखना अपनी प्रशंसा और दूसरे की निन्दा करना, किसी को अपमानित करना पाप कर्म बन्ध का कारण है, जो दुर्गति में ले जाता है।
विवेकवान मानव जानता है कि कोई ऊंचा है, कोई नीचा है। प्रत्येक जीव परमात्म स्वरूप है जैसा कि श्री जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज ने लिखा है -

अप्पा परमप्प तुल्यं , परमानन्द नंदितं।
परमप्पा परमं सुद्धं, ममलं निर्मलं धुवं।।
।। श्री न्यान समुच्चय सार जी गाथा - 79 ।।
आत्मा ही परमात्मा के समान परमानन्द से आनन्दित है तथा परमात्मा के सदृश परम शुद्ध, ममल, निर्मल और ध्रुव है। ज्ञानी महापुरुषों ने अपने स्वभाव को ग्रहण कर स्वभाव में ही रहने की प्रेरणा दी है। श्री गुरू तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज कहते हैं -
‘‘उठि कलस लेहु, सत्ता एक सुन्न विंद उत्पन्न सुन्न सुभाव’’ ‘‘अर्थति अर्थ सिद्धं धुवं।
।। श्री छद्यमस्थ वाणी जी सूत्र ।। 4 10-11।।
हे आत्मन्! उठो शुद्धोपयोग के कलश लो, यह मंगल अवसर है कि समस्त संकल्प विकल्पादि से रहित, निर्विकल्प एक अखण्ड अविनाशी चैतन्य सत्ता स्वरूप अपना सुन्न स्वभाव उत्पन्न हुआ है, जो अपना प्रयोजनीय रत्नत्रयमयी सिद्ध धु्रव स्वभाव है।
‘‘ चैरासी उत्पन्न उत्पन्न उत्पन्न अनन्त भव’’।।
आपनौ-आपनौ उत्पन्न, निमिष-निमिष, लेहु-लेहु, जैसे ले सकहु लेहु।।
।। श्री छद्यमस्थ वाणी जी 4- 14, 15, 16 ।।
चार गति चैरासी लाख योनियों में उत्पन्न होते-होते पीछे अनन्त भव बीत गए हैं। अब अपना-अपना अनुभव करो, थोड़ा-थोड़ा ही ग्रहण करो परन्तु जैसे ले सको ले लो। यह मनुष्य भव संसार के दुःखों से छूटकर मुक्ति की प्राप्ति करने के लिए मिला है। इस अमूल्य मानव जीवन को व्यसन, विषय-कषाय, पाप, आरम्भ परिग्रह में व्यर्थ खोना हीरे से कौओं को उड़ाने के समान जीवन का अपव्यय है।
यह शिष्य ने सद्गुरू से निवेदन किया कि आत्मा स्वयं परमात्मा स्वरूप है, फिर अपने सिद्ध स्वभाव को पाने का क्या उपाय है ? समाधान में सद्गुरू ने कहा -     
इच्छा भोजन जसु उछाह, ऐसो सिद्ध सुभाउ।
।। श्री सिद्ध सुभाव ग्रन्थ, सूत्र - 4 ।।
भोजन में कोई विशेष वस्तु खाने की रुचि हो और इच्छानुसार भोजन मिल जाये तो कितना उत्साह होता है भोजन करने का ? जैसे इच्छा भोजन के प्रति उत्साह जागता है, ऐसा ही उत्साह बल्कि उससे भी ज्यादा अपने सिद्ध स्वभाव को प्राप्त करने का जागे तो सिद्ध स्वभाव की प्राप्ति उसी समय हो सकती है।
आत्म स्वरूप की रुचि पूर्वक सत् श्रद्धान ज्ञान सहित जो जीव अपने में लीन रहते हैं वे मोक्ष-मार्गी हैं।
दर्सनं स्थिरं जेन, न्यानं चरनं स्थिरं।
संसारे तिक्त मोहंधं, मुक्ति स्थिरं सदा भवेत्।।
।। श्री तारण तरण श्रावकाचार जी गाथा - 403 ।।
जो जीव सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र में स्थित होते हैं, उनका संसार में भ्रमाने वाला, मोह रूपी अन्धकार छूट जाता है तथा वे हमेशा के लिये मुक्ति में स्थित हो जाते हैं जो विवेकवान मानव आध्यात्मिक ज्ञान की चर्चा के साथ अपना आचरण भी वैसा ही बनाते हैं वे मुक्ति की प्राप्ति करते हैं, परन्तु जो मात्र चर्चा ही करना चाहते हैं, जीवन में आचरण के सम्बन्ध में जिन्हें कोई ध्यान नहीं है, ऐसे जीवों को सद्गुरू ने सचेत किया है।
पढ़ै गुनै मूढ़ रहै
।। श्री सुन्न सुभाव जी ग्रन्थ, सूत्र - 20 ।।
पढ़ने और गुनने के बाद भी मूढ़ रह जाय अन्यथा वैसी ही दशा होगी कि - एक सेठ जी ने तोता पाला था और उसे सिखा दिया था ‘‘तोता पिंजरे से बाहर नहीं निकलना, बिल्ली आयेगी और पकड़कर ले जायेगी’’ तोते ने यह वाक्य सीख लिया तथा हमेशा दोहराता रहता। एक बार मालिक से भूल हो गई, पिंजरे की फटकी धोखे से खुली छूट गई। तोता याद किया हुआ पाठ दोहराता हुए पिंजरे से बाहर निकला। बाहर निकल कर भी पाठ दोहरा रहा था कि इतने में बिल्ली आई और तोते को पकड़कर ले गई। आचरण विहीन ज्ञान की कोरी चर्चा करने वाले जीवों की भी आज यही दशा हो रही है।
कल दिस्टि, सर्व दिस्टि, पाप दिस्टि, पढ़ो सुआ विलाई लियो।
।। श्री सुन्न सुभाव जी ग्रन्थ, सूत्र - 22 ।।
आत्मा की चर्चा कर रहे हैं और कल दृष्टि अर्थात् शरीर पर पूरा ध्यान है, उसी के भरण पोषण, सेवा सम्भाल में पूरा समय जा रहा है। सर्व दृष्टि-संसार के समस्त पर पदार्थाें पर दृष्टि है। पर वस्तुओं में एकत्व अपनत्व माने बैठे हैं। पाप दृष्टि अर्थात् पापों को करने का अभिप्राय है। पापों को इष्ट प्रयोजनीय मानकर कर रहे हैं। धर्म की आड़ में पाप करने से नहीं चूकते। यह सब करते हुए तोते की भाँति याद की हुई आत्मा की चर्चा करते हैं। कहते हैं कि संसार में अपना कुछ नहीं है, एक दिन सब संयोग छोड़कर चले जाना है; पर यह कहते ही रहते हैं और आयु का अन्त रूपी बिलाव आकर हमें ले जाता है। जो भी जीवन में पुण्य-पाप करते हैं उसी का फल भोगना पड़ता है।
‘‘ज्ञानं भारः क्रिया बिना’’
ज्ञान, आचरण के बिना भार ही है। ज्ञान की शोभा तद्रूप आचरण से है। श्री ममलपाहुड़ जी ग्रंथ में कहा है -
तत्तु तत्तु सवु लोय उत्तउ, तत्तु भेउ नवि जानियऊ।
भय विनासु तं भवु जु कहियऊ, तत्तु भेउ गुरू जानियऊ।।
।। बड़ो बधाऊ, फूलना क्र. 47, गाथा - 9 ।।
तत्व-तत्व तो सब लोग कहते हैं पर तत्व को कोई नहीं जान पाया, जिसके भय विनस गये वह भव्य है, उसने अपने अन्तरात्मा सद्गुरू को जगाकर आत्मानुभव किया, वही तत्व को जान सका है। सद्गुरू की देशना, मानव मात्र के लिये कल्याणकारी है। उनका अध्यात्म सन्देश किसी जाति विशेष से या व्यक्ति विशेषों से बन्धा हुआ नहीं है बल्कि जन-जन के लिये परम श्रेष्ठ और हितकारी है। जीव अपने भावों से ही अपना सुधार और बिगाड़ भी कर सकता है। इस सम्बन्ध में कहते हैं -
कंष्या विशेष सक सत्रा इत्यादि - आशा, स्नेह, लाज, लोभ, भय, गारव, आलस, प्रपंच, विभ्रम, जनरंजन राग, कलरंजन दोष, मनरंजन गारव, दर्शनमोहांध, ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोह आवर्न, अन्तराय सहकार, कांक्षा स्वभाव ।। 17 + 1, दोष 18, अर्क स्वभाव विस्मरंते भाव नर्क गता।
।। श्री चैबीस ठाणा जी ग्रन्थ, अध्याय-1 ।।
आकांक्षा के विशेष परिणाम सहित यह 17 सक उत्पन्न होते हैं। कांक्षा के चाहना कामना रूप बन्धन में बन्धकर जो जीव अपने आत्म स्वरूप का विस्मरण करते हैं, आशा आदि 17 सक के दोष रूप भावों में बहते हैं, उन भावों के कारण नरक गति में चले जाते हैं। यह 17 सक नरकादि दुर्गति के कारण हैं। जिनेन्द्र भगवान के वचनों के अनुसार निज स्वभाव की प्राप्ति के लिये, समस्त विपरीत मान्यताओं का त्याग आवश्यक है। कहा भी है -
मिथ्या दर्शनं न्यानं, चरनं मिथ्या दिस्टते।
अलहन्तो जिनं उक्तं, निगोयं दल पस्यते।।
।। श्री त्रिभंगी सार जी ग्रन्थ गाथा - 16 ।।
जो जीव मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र को देखता है, वह जिनेन्द्र परमात्मा के कहे वचनों को प्राप्त करता हुआ, निगोद पर्याय को देखता है अर्थात् दुर्गति में जाता है। आत्मा का हित करने के लिये मिथ्या दर्शन आदि तीनों को त्याग कर, आत्म स्वरूप का सत्श्रृद्धान, ज्ञान आचरण करें। अहिंसा, सत्य, अचैर्य, ब्रम्हचर्य, अपरिग्रह मय जीवन बनायें। दया करुणा का प्रतिमान उपस्थित करें। गुरूवाणी में जैसा कहा है कि -
षट्काई जीवानं, क्रिपा सहकार विमल भावेन।
सत्व जीव समभावं, क्रिपा सह विमल कलिस्ट जीवानं।।
।। कमलबत्तीसी जी ग्रन्थ गाथा - 21 ।।
पाँच स्थावर अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति कायिक और एक त्रस काय, दो इन्द्रिय जीवों से पंचेन्द्रिय तक, समस्त छह काय के जीवों की रक्षा करो। अहिंसा का पालन करते हुए, जीवों पर दया भाव रखो। प्राणी मात्र पर समभाव धारण करो। दुःखी जीवों पर दया करुणा करो। किसी प्राणी का दिल मत दुखाओ क्योंकि जैसे तुम सुख चाहते हो, वैसे ही संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है। अतः अहिंसा, सत्य, प्रेम, करुणा, मैत्री स्नेहमय जीवन बनाते हुए निजात्म स्वरूप का भेदज्ञान पूर्वक सत्श्रृद्धान ज्ञान कर मानव जीवन सफल बनाओ। अन्त में कहते हैं -
जिन उत्तं सुध सारं, न्यानं अन्मोय विकल्पं विलयं।।
।। श्री ममल पाहुड़ जी ग्रन्थ 3425 ।।
जिनेन्द्र परमात्मा के कहे हुए वचनों का शुद्धसार यही है कि अपने ज्ञान स्वभाव में लीन हो जाओ तो समस्त विकल्प विला जायेंगे और मुक्ति की प्राप्ति होगी।